अहंकार का त्याग ही सफलता का मार्ग है -: योगगुरु डॉ.मिलिन्द्र त्रिपाठी
इस संसार में जितने भी असाध्य रोग हैं ,जानलेवा संक्रमण है ,उनका कोई न कोई इलाज संभव है परंतु अहंकार रूपी बीमारी ऐसी है जिसकी कोई दवा ही नहीं है। अहंकार आत्मा को अंधेरे कुएं में ले जाता है ।जहां से बाहर आ पाना संभव नही । विनम्रता के साथ स्वीकार करना ही अहंकार का उपचार है । विनम्रता ही अहंकार की दवा है । यदि आपके शुभचिंतक आपके गुरु आपको कोई गलती बताते है तो अंहकार को मन से हटाकर उनके बताए मार्ग का अक्षरशः विनम्रतापूर्वक पालन करने से ही हमारा कल्याण संभव है । गुरु ने क्यो ऐसा बोला ,सबके सामने क्यो डाँटा ,मेरे आत्मसम्मान को चोट कारित की यह सब मन का भ्रम है बाकी इससे ज्यादा कुछ नही । हम आज जो भी है हमारे ईश्वर माता पिता ओर गुरुओं के आशीर्वाद से है । विचार करें क्या किसी भी क्षण अहंकार रूपी राक्षस की चपेट में आकर हम किसी अपने का अपमान तो नही कर रहे । अज्ञानता के कारण अनेक बार हम अपने गुरुओं का अपने माता पिता तक का अपमान कर देते है इन्हें धरती पर ईश्वर का दर्जा प्राप्त है जो धरती के ईश्वर का अपमान करता है उसे ऊपर वाला भी माफ नही करता । अपनी गलती पर सार्वजनिक माफी मांग कर हम प्रायश्चित कर मन को हल्का कर सकते है । यह अवसाद से बाहर आने का सबसे अच्छा उपाय है ।
गीता में योगीश्वर श्री कृष्ण ने कहा है
'अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते' --
इसका तात्पर्य है कि साधक की दृष्टि प्राणि मात्र के भाव, आचरण, क्रिया आदि की तरफ न जाकर उन सबके मूल में स्थित भगवान की तरफ ही जानी चाहिये। कार्य, कारण, भाव, क्रिया, वस्तु, पदार्थ, व्यक्ति आदि के मूलमें जो तत्त्व है, उसकी तरफ ही भक्तों की दृष्टि रहनी चाहिये।
अनेक बार देखा गया है भ्रमित व्यक्ति को सीधी वस्तु भी उलटी दिखाई देती है। वो पीड़ित व्यक्ति स्वयं भी सीधा देखना ही नही चाहता । उसी तरह अहंकार के चलते व्यक्ति को वास्तविकता नजर नहीं आती। वास्तविकता बताने वाले हर व्यक्ति से वो दुश्मनों की भांति व्यवहार करता है । उन्हें ही बुरा भला कहने लगता है । अंदर ही अंदर खुद परेशान होकर गहरे अवसाद का शिकार हो जाता है ।
जैसे जैसे उम्र बढ़ती जाती है अहंकार का भाव भी बढ़ता जाता है । बच्चों में यह भाव नही होता और इसी लिए बच्चे हर समय चिंता मुक्त ओर खुश नजर आते है । बचपन में बरसात के दिनों में सब भूलकर की कौन देख रहा होगा ? कौन क्या सोच रहा होगा हम कीचड़ में मस्ती करने लगते थे । स्वछंद जीवन जीते थे घर जाकर कितनी ही फटकार लगे मस्ती में कोई फर्क नही पड़ता था । बस यही जीवन की असली सिख है जीवन पर्यंत अपने अंदर के बचपन को खत्म नही होने देना । बचपन में स्कूल के दिनों को याद कीजिये । टीचर पूरी क्लास के सामने हमे पिट देते थे ,मुर्गा बना देते थे या जोर से डांट देते थे और हम मुस्कान के साथ हर सजा को पूर्ण कर लेते थे । उनका कालखंड खत्म होते ही हम सब भूल जाया करते थे । मन मे टीचर के प्रति सम्मान खत्म नही होता था । क्योंकि हम जानते थे उनका डांटना या पीटना हमारी भलाई के लिए था । क्या हमने उन्हें पलट कर कभी जवाब दिया ? क्या हमने उस वक्त यह सोचा कि टीचर ने डांट कर हमारे आत्म सम्मान को चोटिल किया ? आपका उत्तर होगा नही लेकिन अब यदि कोई हमारा रिश्तेदार ,दोस्त ,गुरु हमे कुछ कह देता है तो हमारे दिमाग में यह बात आती है कि उन्होंने मेरा अपमान किया है । फिर अंदर ही अंदर हम परेशान होने लगते है आखिरी में हम खीज कर गुस्से में अपने उस शुभ चिंतक के खिलाफ गलत प्रतिक्रिया व्यक्त करते है । आखिर क्यों ? क्योकि हमारे अंदर के अहंकार के टकराव ने हमे विचलित कर दिया था । अच्छा तो यह होता कि हम कोई प्रतिक्रिया व्यक्त न करते और सोचते कि क्या हमारी बिल्कुल गलती नही थी ? ओर यदि थी तो गलती पर टोकने वाले ने तो हमारा भला ही चाहा होगा । लेकिन मन मे यह भाव की वैसी ही गलती पर किसी ओर को कुछ नही बोला गया ? तो क्या आपने सोचा हो सकता है कि आपके शुभचिंतक व्यक्ति आपमें सुधार चाहते हो आपसे उनकी अपेक्षा हो कि आप अपने जीवन मे कम से कम गलती करें । एक दिन में यदि हम कई गलती करते थे तो बचपन मे भी हमे दिनभर डांट पड़ती थी यदि आज भी हमसे गलती हो गयी तो उस गलती को स्वीकार न करना और उल्टा हमारे अपनों पर गुस्सा करना क्या उचित होगा ? सार्वजनिक गलती करने पर सार्वजनिक यदि आपके गुरु आपकों डांटते है तो यह विषय व्यक्तिगत नही होता बल्कि गुरु सभी उपस्थित जनों को संदेश देना चाहते है कि ऐसी गलती अन्य लोग भी न करें । इस फटकार का कही यह मतलब नही की वो फटकार सिर्फ अकेले आपके लिए होगी । यदि हम कुछ गलत करते है तो उस गलती को सुधारने वाला या उस गलती पर ध्यान दिलाने वाला आपका दुश्मन नही हो सकता बल्कि आपका सबसे बड़ा शुभचिंतक होगा । अनेक बार शिष्य आपस में अपने स्तर के शिष्य से बात करते है और फिर कहते है गुरु की गलती थी और उसकी मानसिक स्तर के समतुल्य शिष्य गुरु पर ठीकरा फोड़ देते है लेकिन क्या आपकीं मानसिकता गुरु के समतुल्य है ? क्या गुरु जहां तक समझ रखता है क्या शिष्य वहां तक सोच पाते है ? आपका जवाब होगा नही । लेकिन ईगो के वशीभूत होकर गुरु की बुराई करना सामान्य बात है उसपर प्रतिक्रिया करना भी सामान्य बात है लेकिन सच्चा शिष्य वही है जो गुरु की हर डांट को वरदान समझकर आत्मसात करें । विनम्रता से स्वीकार करना ही अहंकार का जड़ से खत्म करेगा । एक उच्च प्रयोजन के लिए जब आप जीवन मे काम करते है तो गलतियां होना साधारण बात है । गलतियों को स्वीकार करना आज के दौर की सबसे बड़ी उपलब्धि है । अनेक अंहकारी लोग काल के गाल में समां गए उन्हें कोई याद तक नही करता जीवन खत्म होने के बाद दुनिया हमें अच्छे कार्यो के लिए याद करें ऐसे कार्यो में संलग्न रहने से ईश्वरीय कार्यो को करने से अहंकार नष्ट होता है ।
योग गुरु डॉ.मिलिन्द्र त्रिपाठी